बाड़मेर की सुशीला खोथ की उड़ान, अंडर-18 रग्बी टीम के साथ ताइवान में चमकेंगी
बाड़मेर की सुशीला खोथ ने रूढ़ियों को तोड़कर भारतीय रग्बी टीम में जगह बनाई। अब वह ताइवान में एशिया कप में भारत का प्रतिनिधित्व करेंगी।

बाड़मेर, राजस्थान। बाड़मेर के एक छोटे से गाँव भूरटिया की सुशीला खोथ ने उन सभी सामाजिक और आर्थिक बाधाओं को तोड़ दिया है, जो अक्सर लड़कियों को उनके सपनों से दूर रखती हैं। जो बेटी कल तक बकरियां चराते हुए कपड़ों की गेंद से रग्बी का अभ्यास करती थी, आज वह भारतीय रग्बी टीम का गौरव है। सुशीला खोथ 13 सितंबर, 2025 से ताइवान में होने वाले एशिया रग्बी कप में देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं।
संघर्ष और अटूट संकल्प की कहानी
भूरटिया जैसे गाँव में, जहाँ लड़कियों का घर से बाहर निकलकर खेलना भी बड़ी बात मानी जाती है, सुशीला खोथ का रग्बी के प्रति जुनून किसी क्रांति से कम नहीं था। एक साधारण किसान परिवार से आने वाली सुशीला के माता-पिता, गणेश कुमार खोथ और बाली देवी, खेती और पशुपालन से गुज़ारा करते हैं। शुरुआती दिनों में परिवार और समाज दोनों को उनका यह शौक अजीब लगता था।
उनकी दादी किस्तूरी देवी याद करते हुए बताती हैं, "हम उसे बकरियां चराने भेजते थे, लेकिन वह कपड़ों में गेंद छिपाकर ले जाती और अभ्यास करती थी। हमारे पास असली फुटबॉल खरीदने के पैसे नहीं थे, तो उसने कपड़ों की गेंद बनाकर ही खेलना शुरू कर दिया। हमने बहुत मना किया कि यह लड़कों का खेल है, पर वह अपनी जिद पर अड़ी रही। आज उसने हमारा नाम अमर कर दिया है।"
परिवार बना सबसे बड़ी ताकत
जब राष्ट्रीय टीम में चयन हुआ, तो आर्थिक तंगी सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आई। रग्बी किट और यात्रा का खर्च उठाना परिवार के लिए संभव नहीं था। लेकिन सुशीला खोथ के अटूट विश्वास—"मैं जीतकर लौटूंगी"—ने परिवार का दिल पिघला दिया। पिता गणेश कुमार बताते हैं, "हमने अपनी बकरियां बेचकर उसकी किट, ट्रेनिंग और यात्रा के लिए पैसों का इंतजाम किया।" सामाजिक दबाव भी कम नहीं था। पड़ोसियों के तानों का जवाब देते हुए गणेश ने कहा, "हमने अपनी बेटी का हौसला देखा और उसे खेलने दिया। उसने साबित कर दिया कि बेटियां भी परिवार और देश का नाम रोशन कर सकती हैं।"
एक सितारे का उदय
कोच कौशलाराम विराट के मार्गदर्शन में अप्रैल 2022 में रग्बी की शुरुआत करने वाली सुशीला खोथ ने अपनी कड़ी मेहनत से यह मुकाम हासिल किया है। वह रोजाना गाँव और घर के बीच दौड़ लगाकर अपनी सहनशक्ति बढ़ाती थीं। उनका सपना अब भारत के लिए एशिया और विश्व स्तर पर स्वर्ण पदक जीतना है। वह अपने गाँव भूरटिया में एक राष्ट्रीय स्तर का स्टेडियम बनवाना चाहती हैं ताकि और प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का मौका मिले।