डोली में बैठकर दुर्ग में पहुँची लुटेरी सेना, आधी रात को हुआ अर्द शाका | जाने सोनार गढ़ की असली दास्ताँ
उस अंधेरी रात में हुए इस खौफनाक जंग की कहानी इतिहास के पन्नों में आज भी जैसलमेर के अर्द शाके के नाम से दर्ज है। "गढ़, दिल्ली, गढ, आगरा और गढ बीकानेर। भलो, चिणायो भाटियां, सीरगढ़, जैसलमेर"।
साल था। 1550 धोरों की धरती पर घाघरे के आकार में बने उस खूबसूरत किले के दरवाजे पर कुछ डोलियां पहुंची। दरवाजे पर मौजूद द्वारपालों को पहले ही बता दिया गया था कि इन डोलियों में अफगानी सरदार आमिर अली की बेगमें हैं, जो महलों में महारानियों से मिलने के लिए जा रही हैं। लेकिन तभी एक डोली में से अजीबो गरीब आवाजें सुनकर सैनिकों को कुछ संदेह होता है। जैसे ही वो तलाशी लेने के लिए डोली का पर्दा हटाते हैं तो सामने देखते हैं कि डोली में बुर्का पहने बेगमें नहीं बल्कि सैनिक बैठे थे। ये नजारा देख चारों तरफ हड़कंप मच जाता है और किले के दरवाजे पर ही युद्ध शुरू हो जाता है। जबरदस्त मारकाट मचती है। किले के राजा राव लुनकरण राजपूती वीरों के साथ खुद मैदान में उतरते हैं और जंग लड़ते हैं। उस अंधेरी रात में हुए इस खौफनाक जंग की कहानी इतिहास के पन्नों में आज भी जैसलमेर के अर्द शाके के नाम से दर्ज है। "गढ़, दिल्ली, गढ, आगरा और गढ बीकानेर। भलो, चिणायो भाटियां, सीरगढ़, जैसलमेर"। कहते है कि यों तो दिल्ली आगरा और बीकानेर के किले भी बेहद शानदार है, लेकिन भाटियों का जैसलमेर गढ़ तो इन सबका सिरमौर है। जैसलमेर के सोनार किले के तारीफ में न जाने कितने ही कसीदे पढ़े गए है। रेगिस्तान का गुलाब कहे जाने वाले इस किले को इतिहास में याद किया जाता है। ढाई साके के लिए। जी हां, इस किले में दो पूरे और एक अर्द शाका हुआ था। यानि की एक आधा साका हुआ था | अर्द शाका उस भयानक रात में हुआ। जब आमिर ने अपने शरणदाता को धोखा दे कर उस
पर ही हमला कर दिया था। इस अर्द शाका का परिणाम क्या रहा? इस जंग में फतेह किसकी हुई ये जानने के लिए हमें चलना होगा। रेगिस्तान का अण्डमान कहे जाने वाले जैसलमेर दुर्ग के इतिहास की गहराइयों में। देश की राजधानी दिल्ली से करीब 764 किलोमीटर दूर राजस्थान के पश्चिम में बसा है। जैसलमेर। ये शहर सोने से चमकते पीले घरो और राजस्थानी कल्चर के लिये दुनिया भर में मशहूर है। जैसलमेर की धरती पर ही बना है। सोनार गढ़ का किला। इस किले को बनाया था भाटी राजपूतों ने। इतिहास के पन्नों को पलट कर अगर देखा जाए तो पता चलता है कि ये वही भाटी राजपूत थे जिन्होंने दिल्ली से मुल्तान जाने वाले रास्ते पर भटनेर का किला बनवाया था। यह राजस्थान का प्रथम दुर्ग था, जिसकी तारीफ में तैमूर लंग ने कहा था कि उसने भटनेर जैसा मजबूत किला अपने जीवन में दूसरा नहीं देखा। कहते हैं कि भटनेर से 600 किलोमीटर दूर राजस्थान के पश्चिमी सीमा पार तनोट को इन भाटी राजाओं ने अपनी राजधानी बनाया। लेकिन सवाल ये आता है कि क्या वजह थी कि भाटी राजा भटनेर छोड़ कर इतनी दूर चले गए। दरअसल भटनेर का किला बनने के कुछ सदियों बाद ही अफगानी लुटेरे लगातार भारत पर आक्रमण करने लगे। यह उत्तर की तरफ से आक्रमण करते थे और भटनेर भी उत्तर में ही बसा था। इसी लिए इनका पहला सामना भटनेर को करना पड़ता था। तैमूर और महमूद गजनवी जैसे लुटेरों ने यहां खूब मारकाट मचाई थी। इसीलिए भाटी राजपूत भटनेर छोड़ कर तनोट आ गए। कुछ सालों तक तनोट में राज करने के बाद इन्होने अपनी राजधानी तनोट के पास ही लोदर्बा को बनाया, क्योंकि अफगानिस्तान से गुजरात जाने
वाला व्यापारिक मार्ग लोदर्बा से होकर ही गुजरता था। लेकिन यहां भी वो ही समस्या थी। व्यापारिक मार्ग होने से राजाओं को टैक्स का पैसा तो मिलता था, लेकिन अफगानी लुटेरे यहां पर भी बार बार आक्रमण किया करते थे। लेकिन फिर आगाज होता है 10वीं सदी का और लोदर्वा की राजगद्दी पर बैठे राव जैसल | राव जेसल इन आक्रमणों से अपने राज्य की सुरक्षा करना चाहते थे। इसके लिए वो एक तपस्वी के पास पहुंचे जिनका नाम था। ऋषि इंसाल |
ऋषि इंसाल ने उन्हें बताया कि जब द्वापर युग में श्रीकृष्ण और अर्जुन हस्तिनापुर से द्वारिका की तरफ जा रहे थे, तब रास्ते में वो थार के मरुस्थल में रुक गए। कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि आने वाले समय में मेरे ही वंशज इस क्षेत्र पर राज करेंगे। इस पर अर्जुन ने उनसे कहा कि इस धरती पर तो पानी का नामोनिशान ही नहीं है तो फिर यहां राज कैसे किया जाएगा। अर्जुन की इस बात पर। श्री कृष्ण सोच में पड़ गए । फिर उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से धोरों के उस इलाके में काक नदी को अवतरित किया। ऋषि इंसाल ने राजा से कहा कि अब वक्त आ गया है कि उस दूसरों की धरती पर काक नदी के किनारे स्थित पहाड़ी पर तुम अपना किला बनाओ। ये धोरों की धरती कहीं ओर नहीं बल्कि लौद्रवा के समीप जैसलमेर ही थी और श्रीकृष्ण के वंशज कोई और नहीं बल्कि राव जैसल ही थे। वो इसलिए क्योंकि राव जैसल यदुवंशी भाटी थे। यदुवंशी भाटी खुद को श्रीकृष्ण का वंशज मानते थे। इसीलिए इनके राज् चन्हों में भी हिरणों को जगह दी गई थी। शास्त्रों में हिरणों को चंद्रमा का प्रतीक माना जाता है। भाटी राजा खुद को श्रीकृष्ण का वंशज होने के नाते चन्द्रवंशी
मानते थे। उत्तर भड़ कीवाड़ का मतलब है कि ये उत्तर से होने वाले हमलों के सामने एक कीवाड़ या गेट की तरह होते हैं जो उनको रोकते हैं |
वही नीचे लिखे गए। छत्राड़ा। यादव का मतलब है कि ये वो यदुवंशी थे जिन्होने छत्र धारण किया था या चारण जाति के लोगों को छत्र दान किये थे। यदुवंशी भाटी होने के नाते राव जैसल ने ये तय किया था कि वो अपने पूर्वज भगवान श्रीकृष्ण के आज्ञा के मुताबिक काक् नदी के किनारे स्थित पहाड़ी पर एक नया राज्य बसाएंगे। इस पहाड़ी का नाम था गोठरा पहाड़ी कहते हैं कि लोदर्वा से 15 किलोमीटर दूर त्रिभुजाकार में बने इस पहाड़ी को त्रिकूट पहाड़ी भी कहा जाता था। ऋषि इंसाल के कहने पर राव जैसल ने उस पहाड़ी पर ही इस किले की नींव रखी। 12 जुलाई 1155 गोठरा पहाड़ी पर राव जैसल ने किले की नींव रखी और जोर शोर से किले का निर्माण शुरू हो गया। कहते है कि इस इलाके में सोने सा चमकता पीला पत्थर निकलता था। इसीलिए दुर्ग के शिल्पियों ने यह तय किया कि वो इसी पत्थर से किला बनाएंगे। उन्होने मिटटी और चूने का इस्तमाल किए बिना ही पत्थरों को एक के ऊपर एक बेहद खास तरीके से सेट करना शुरू कर दिया। दुर्ग को सुरक्षित रखा जा सके। इसके लिए हर दीवार पर बुर्ज बनाए गए और इन्हीं बुर्जों को घेरते हुए एक और दीवार बनाई गई। किले की छतों को हल्का रखने के लिए उन्होंने पत्थरों के बजाए लकड़ी की छतें बनाई और इस लकड़ी पर दीमक ना लगे। इस लिए हर एक छत पर गोमूत्र का लेप करवाया गया। दुर्ग के शिल्पी और धोरों के मेहनतकश मजदूर दिन रात काम करके
राव के सपनों का ये किला बनाने में लगे थे। लेकिन इसी बीच राव जैसल का देहांत हो गया, जिसके बाद उनके बेटे शालिवाहन द्वित्य राजगद्दी पर बैठे। उन्होने अपने पिता राव जैसल की याद में इस किले का नाम जैसाण् गढ़ और इस शहर का नाम जैसलमेर रखा, लेकिन किले का निर्माण अभी पूरा नहीं हुआ था। इसलिए जब तक यह किला बन कर तैयार नहीं हुआ तब तक शालिवाहन लोदर्वा से ही राज करते रहे। करीब सात सालों की अथक मेहनत के बाद 1162 ईस्वी में जैसाण् गढ़ बनकर तैयार हुआ और अगली सुबह जैसे ही इसपर सूर्य की किरणें पड़ी तो उसे देखकर हर कोई दंग रह गया। सूरज की किरणों के छूते ही इस दुर्ग के पहले पत्थर जगमगा उठे। ये सोने सा चमक रहा था, इसीलिए इसे रेगिस्तान का स्वर्ण और सोना गढ़ कहा गया। कहते हैं कि रेगिस्तान की धरती के बीचों बीच यह दुर्ग ऐसा खड़ा था मानो रेत के समंदर में कोई बहुत बड़ा जहाज लंगर डाल कर खड़ा हो। इस दुर्ग के एक नहीं दो नहीं बल्कि 99 बुर्ज थे, जिन्हें देखने पर लग रहा था। मानो यह रेगिस्तान का घाघरा हो और इसका दोहरा परकोटा कमरकोट कोडहरा पहाड़ी पर बने होने के कारण इसे कोडरा गढ़ और त्रिभुजाकार में बने होने के कारण इसे त्रिकोण गढ़ भी कहा गया। रेगिस्तान के बीचों बीच बना जैसलमेर का ये गढ़ तो भाटियों के शान की कहानी कह रहा था। चारों तरफ रेगिस्तान होने के कारण यह किला धावन्य श्रेणि का दुर्ग माना गया। यह भटनेर से भी ज्यादा मजबूत और सुरक्षित था क्योंकि यह पहाड़ी पर बना था। उंचाई पर होने के कारण चारों तरफ के समतल जमीन पर आसानी
से नजर रखी जा सकती थी और दुश्मन को दूर से ही देखा जा सकता था। जैसाण् गढ़ में भाटी राजाओं का साम्राज्य बिल्कुल सुरक्षित था, लेकिन सवाल ये आता है कि क्या भाटी राजा जैसलमेर का किला कभी नहीं हारे। जैसलमेर का इतिहास कहता है कि एक दिन ऋषि इंसाल ने राव जैसल को बुलाया और उन्हें बताया।बताया की इस किले पर तीन हमले ऐसे होंगे जिसमे भाटियों को हार का सामना करना पड़ेगा | लेकिन हर वार भाटी इस किले को फिरसे फतेह करने मे सफल रहेंगे | और उनका राज यहाँ अंत तक कायम रहेगा |
ऋषि इंसाल् की ये बाते सच साबित हुई जो पहली बार इस किले पर अलाउदीन खिलजी ने इस किले पर आकरमण करदिया | कहते है की 12 वी सदी के आरंभ का समय था |
जैसलमेर पर राव जैत सिंह का शासन था | राव जैत सिंह के दो बेटे थे | मूलराज और रतन सिंह कहा जाता है कि दिल्ली जा रहे अलाउद्दीन खिलजी के खजाने को अपनी सेना के साथ मिलकर लूट लिया और उसे जैसलमेर के किले में लेकर आगये | इस बात से खपा अलाउद्दीन ने जैसलमेर पर चढ़ाई करदी | अलाउद्दीन के खजाने को लूटने का एक मुख्य कारण था |
कहते है की 1298 ईस्वी मे अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी सेना गुजरात भेजी | वहाँ के राजा कारण बघेला की हत्या करके अलाउद्दीन के सैनिको ने गुजरात में जमकर तबाही मचाई | उन्होंने सोमनाथ के मंदिर लुट लिया और शिवलिंग को तोड़कर उसके टुकड़ों को दिल्ली लेआए | कहते है की शिवलिंग के खंडित टुकड़ों को पैरों में रोल कर अपमान तक गया था | कहते है कि वीरगति को प्राप्त हुए राजा कारण बघेला की पत्नी से खिल्जी ने जबरदस्ती शादी भी करली थी |
इस बात से राजपुताने के राजा बेहद खपा थे | और इसी नाराज़गी का असर था कि जैसलमेर मे अलाउद्दीन का खजाना लुटागया |
अलाउद्दीन की सेना के आगे राव जैत सिंह की सेना बहुत छोटी थी | लेकिन अंजाम जानते हुए भी राव जैत सिंह ने खिल्जी से लोहा लिया | इस से अलाउद्दीन को जैसलमेर पर आक्रमण करने का मौका मिलगया | लेकिन रेत के समंदर मे अंगड़ाई लेते जैसाण् गढ़ शेर को जितना इतना आसान भी तो नहीं था | पहले कमालूदीन और फिर मलिक काफूर के नेतारत्व मे अलाउद्दीन की फौज दो वार इस किले पर आकर्मन करने आई | और हर बार उन्हे मुह की खानी पड़ी |
लेकिन तीसरी बार कमालू दीन एक विशाल सेना के साथ लौटा और जैसलमेर गढ़ के चारों तरफ डेरा डाल दिया | कहते है कि 6 से 8 सालों तक अलाउद्दीन की सेना ने दुर्ग को घेरे रखा |
इसी बीच राव जैता सिंह की मृत्यु होगई अब उनके बड़े बेटे मूलराज का राजतिलक किया गया | लेकिन नये राजा के सामने मूल समस्या थी रासन की, क्योंकि दुसमन सेना ने रासन सप्लाई की मैन चैन को पूरी तरह से काट दिया था | और दुर्ग के अंदर भी रासन खतम होता जारहा था और बाहर से भी रासन अंदर नही लाया जासकता था | यही कारण था की राव मूलराज ने तेह किया कि वो अपने सेनिकों के साथ केसरिया करेंगे और उनकी राणियाँ जौहर करेंगी | और यहीं था जैसलमेर का पहला शाका |
जिसमे वीर योधाओं ne केसरिया बाना पहन् कर युद्ध किया और, रानियों ने जौहर की आग में जौहर किया | इस तरह से 1312 ईस्वी में पहला साका हुआ | वही 1359 ईस्वी में राव दुदा के समय दूसरा साका हुआ | तब फिरोज शाह तुगलक ने आक्रमण किया था |
लेकिन सबसे हैरान करने वाला था जैसलमेर का अर्द शाका , साल था 1550
इतिहास में रुठी रानी के नाम से मशहूर रानी उमादे के पिता लुनकारण सिंह जैसलमेर पर राज किया करते थे | उनके शासन काल के दोरान कंधार से आमिर अली नाम का एक व्यक्ति आया | उसने राव लुनकारण को बताया की उस कंधार से धके मारकर निकाल दिया गया है | और अब वो जैसलमेर में सरण लेने आया है, विशाल हदय बाले राव लुनकारण सिंह ने उसे सरण देदी,
कहते है की राव लुन कारण सिंह अमीर अली के व्यवहार से इतने खुश थे की अपनी पगड़ी बदलकर उन्हें अपना धर्म भाई बना लिया था | लेकिन अमीर अली के मन में तो लालच भरा था उसने सोचा क्यों ना राव को मारकर वो खुद ही जैसलमेर का राजा जाए | लेकिन आमने सामने की लडाई में तो ये सम्भव नही था | क्यूंकि अमीर अली के पास तो मुठी भर ही सैनिक थे , और राव लुनकारण के पास एक विशाल सेना थी |
इसी लिए उसने सड्यंतर रचा और उसने राव लुन करण सिंह को कहा कि उसकी बेगमे राणियो से मिलना चाहती है | इस पर राव लुन करण ने बाग़मो को महल में आने की इजाज देदी,
कहते है कि अमीर अली ने जौहर की सारी लकडियाँ बाहर फिंकवा दी और जौहर के कुण्ड मे पानी भरवा दिया था | ताकि दुर्ग में जौहर हो ही ना सके
लेकिन दुर्ग के दरवाजे़ पर ही अमीर अली का भांडा फुट गया, कंधार के लूटेरों और राजपूति योध्दाओं के बीच जोरदार जंग हुई | इस जंग में आमिर अली मारा गया, पर अफसोस की बात भी ये थी की राव लुनकरण भी वीर गति को प्राप्त हुए |
लेकिन आखिरकार जीत भाटियों की ही हुई | इस लिए रानियों ने जौहर नही किया क्यों की इस शाके मे केसरिया तो हुआ लेकिन जौहर नही हुआ | इसी लिए इसे अर्द शाका कहा गया | कहते हैं की भाटियों की ये ही आखरी बड़ी जंग थी,
और इसके बाद भाटियों के पैर जैसलमेर से कोई नहीं उखाड़ सका, एक वक़्त था जब पुरा जैसलमेर सहर ही इस किले में सिमटा हुआ था | हजारों साल के इतिहास में यहाँ हवेलियाँ महल और मंदिर बनाए गए | जो लोग सदियों पहले किले में रहते थे उनके घर आज भी यही है, करीब 5000 हजार ब्राह्मण और राजपूत लोग आज इस किले में रहते है, चितोड़गढ़ के बाद राजस्थान का ये दूसरा सबसे बड़ा लिविंग पोट है | इस किले में बने घर आपको बिलकुल आपके सहर के महोले जैसे लगेंगे , जिसकी संकरी गलियों के कारण इसे गलियों का दुर्ग भी कहा जाता है | कहते हैं की 1437 ईस्वी में महारावल वेरिसाल ने लक्ष्मी नारायण जी के मंदिर का निर्माण भी करबाया था | उन्होंने मेड़ता के मंदिर की मूर्ति को इस मंदिर में स्थापित करबाया था | ये वही मेड़ता है जिसे मीरां के लिए जाना जाता है, कहते है कि इस मंदिर के कपाटों को सोने में मंडा गया था, उस दोर में यहाँ भव्य दसहरा मेेला लगता था खुब नाच गाना हुआ करता और पशुओं की वली दी जाती थी | लेकिन वक़्त के साथ वली पर बेन लग गया